हेट स्पीच पर अब सीधे एफआईआर:अर्थों की नग्नता ढँकने को, मैंने उनके गले शब्दों की बाँह डाली थी…

भास्कर ओपिनियनहेट स्पीच पर अब सीधे एफआईआर:अर्थों की नग्नता ढँकने को, मैंने उनके गले शब्दों की बाँह डाली थी…

हेट स्पीच यानी घृणा पैदा करने वाली बयानबाज़ी। कई शिकायतें हुईं। कई आपत्तियाँ आईं। हमारे नेता तो किसी मर्यादा पर रुके नहीं। वे रुकना चाहते भी नहीं। आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट को ही आगे आना पड़ा। कोर्ट ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आदेश दिया है कि जो भी, जहां भी इस तरह की बयानबाज़ी करे, तुरंत उसके ख़िलाफ़ एफआईआर दायर की जाए। इसके लिए किसी शिकायत की राह भी नहीं तकनी है।

अक्सर देखा गया है कि विभिन्न धर्मों और जातियों या समुदायों को निशाना बनाकर राजनीतिक नेता या धार्मिक नेता उस धर्म, जाति या समुदाय को आहत करने वाले बयान देने से नहीं चूकते। अब वे बचने वाले नहीं हैं। उन्हें मुक़दमे का सामना करना होगा। ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें नेताओं, धार्मिक लोगों ने एक – दूसरे के खिलाफ हेट स्पीच की है। रामचरित मानस को लेकर पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कुछ नेताओं ने कई तरह के सवाल उठाए थे। रामायण जैसे ग्रंथों की अनुचित व्याख्या निश्चित तौर पर लोगों को आहत तो करती ही है।

आख़िर वोट की ख़ातिर आप पौराणिक ग्रंथों की अनुचित व्याख्या कैसे कर सकते हैं? कुछ ही महीने पहले जूना अखाड़ा के महामण्डलेश्वर यति नरसिंहानंद गिरि ने सरकार के ‘ हर घर तिरंगा’ अभियान का विरोध करते हुए कहा था कि – “तिरंगे का बहिष्कार करो, क्योंकि इस तिरंगे ने तुम्हें बर्बाद कर दिया है। अब हर हिंदू के घर पर भगवा ध्वज ही होना चाहिए।”

इसी साल जनवरी में जदयू नेता मौलाना ग़ुलाम रसूल बलियावी ने कहा था – “तुम मुझे जितनी गालियाँ देनी हो, दे लो, लेकिन अगर मेरे आका की इज़्ज़त पर हाथ डालोगे तो अभी तो हम कर्बला मैदान में इकट्ठा हुए हैं, उनकी इज़्ज़त के लिए हम शहरों को भी कर्बला में बदलने की हिम्मत रखते हैं। कोई रियायत नहीं बरतेंगे।”

इसी तरह मौलाना असद मदनी हों या बाबा रामदेव, सबकी ज़ुबान फिसलती रही है। इस चलन को रोकना ही होगा। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट कह चुका है- जिस दिन राजनीति और धर्म अलग हो जाएँगे, उसी दिन इस तरह के नफ़रती भाषण बंद हो जाएँगे। कोर्ट ने पहले ही कहा है कि हर रोज़ टीवी पर, सार्वजनिक रूप से नफ़रत फैलाने वाले बयान दिए जा रहे हैं। क्या ऐसे लोग खुद को कंट्रोल नहीं कर सकते?

जजों ने तो पंडित नेहरू और अटलजी का उदाहरण देते हुए कहा कि उनके भाषण सुन कर तो देखिए, लोग दूर- दूर से उन्हें सुनने आया करते थे। क्या पक्ष, क्या विपक्ष, उनके भाषण सुनने को सभी लालायित रहते थे। लेकिन आज हम कहाँ जा रहे हैं?

शब्दों और अर्थों की मर्यादा अगर हमारे प्रतिनिधि अपने अंतर में उतार लें तो इस तरह के नफ़रत फैलाने वाले बयान रुक सकते हैं और बहुत हद तक समाज में भी समरसता आ सकती है। इसी मुद्दे पर महान कवियित्री अमृता प्रीतम का व्यंग्य- “अर्थों की नग्नता ढँकने को, मैंने उनके गले शब्दों की बाँह डाली थी, आज वही शब्द अर्थों को लज्जित करके लौटे हैं, … और मेरे सामने आँख नहीं उठाते”

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