- Hindi News
- Opinion
- Schools Deserted, Streets Deserted And Paddy Fields Till The Path Of Their Owners
भास्कर ओपिनियनमणिपुर:स्कूल वीरान, गलियां सूनी और धान के खेत अपने मालिकों की राह तक रहे हैं
20 घंटे पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर
- कॉपी लिंक

सवा दो महीने बीत चुके। मणिपुर में हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है। हैरत की बात ये है कि किसानों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा बलों के जवानों को लगाया गया है तब भी धान रोपाई के इस समय में यहाँ खेतों में इक्का-दुक्का किसान ही जा पा रहे हैं। खेत सूने हैं। स्कूल वीरान हैं और गलियाँ ख़ाली पड़ी हैं।
मणिपुर पहला प्रदेश है जहां आमने- सामने लड़ने वाले भी नागरिक ही हैं और जो पीड़ित हैं, वे भी नागरिक। कहने को चार जुलाई से यहाँ स्कूल खुल गए हैं। इसके बाद इंफाल में तो कुछ बच्चे स्कूल जा पा रहे हैं, बाक़ी प्रदेश में, ख़ासकर कुकी इलाक़ों में पढ़ाई ठप है, क्योंकि वैसे भी यहाँ ज़्यादातर स्कूल फ़िलहाल शरणार्थी शिविर बने हुए हैं।

मणिपुर में 3 मई से जारी हिंसा का दौर अब भी जारी है।
… और जिस तरह का हिंसक माहौल यहाँ बना हुआ है, शरणार्थियों को कहीं और शिफ़्ट करना या उनके घरों में वापस भेजना संभव नहीं है।
फ़िलहाल पूरा मणिपुर दो हिस्सों में बंट चुका है। गनफाइट यहाँ आम हो चुकी है। लोग मारे जा रहे हैं। ट्रक उलट दिए जा रहे हैं और रोज़ कई वाहनों, घरों को आग के हवाले किया जा रहा है। मैतेई मारा जाता है तो कुकी उसे आतंकवादी बताते हैं और कुकी मारा जाए तो मैतेई उसे आतंकवादी बताने से नहीं चूकते।
सरकार लोगों से सलाह माँगती फिर रही है कि मणिपुर की हिंसा को कैसे रोका जाए? पुलिस, सेना और सुरक्षा बल सब कुछ करके हार गए। कोई समाधान नहीं निकल पा रहा है। अब आम लोगों को सीधे गोली भी तो नहीं मारी जा सकती!
आख़िर इस समस्या, इस हिंसा का समाधान क्या है? मैतेई को पहाड़ों पर ज़मीन चाहिए और कुकी को इंफाल फूटी आँख नहीं सुहाता। यानी वे अपना अलग प्रशासन और पहाड़ों पर विकास की माँग पर अड़े हुए हैं। हालाँकि, बातचीत के बिना इस समस्या का कोई हल नहीं है, न ही हो सकता है।

मणिपुर में अभी भी घरों को आग के हवाले किया जा रहा है।
लेकिन दोनों समुदायों को बातचीत के लिए राज़ी करे कौन? सीधी सी बात है यह ज़िम्मेदारी आख़िरकार तो सरकार की ही है। या तो राज्य सरकार इसके लिए प्रयास करे या फिर केंद्र सरकार कुछ करे! बातचीत कितनी सफल होगी, होगी भी या नहीं यह तो दूर की बात है, इसके पहले दोनों समुदायों को बातचीत के टेबल पर लाने के लिए कुकी का विश्वास जीतना ज़रूरी है।
यही सबसे टेढ़ी खीर है। कुकी फ़िलहाल सरकार जैसी किसी चीज पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। मैतेई समृद्ध हैं, शक्तिशाली भी हैं, उन्हें कुकी के प्रभाव वाले पहाड़ों पर अपनी जायदाद खड़ी करनी है।
जब सुभाष घीसिंग-राजीव समझौता हो सकता है, जब लोंगोवाल समझौता हो सकता है तो मैतेई- कुकी समझौता क्यों नहीं हो सकता? दम्भ चाहे सरकारों का हो या समुदायों का, इसे बग़ल में रखे बिना न तो कोई बातचीत हो सकती है और न ही कोई समझौता संभव दिखाई देता है।
यक़ीनन सरकारें इस दिशा में प्रयास कर ही रही होंगी, लेकिन ईमानदार प्रयास ज़रूरी हैं। जब तक दोनों पक्षों को सरकार या उसके नुमाइंदों पर भरोसा नहीं होता, बातचीत सिरे नहीं चढ़ेगी।