एक समय था जब भारतीय जनता पार्टी को सवर्णों की पार्टी कहा जाता था. बीजेपी ने अपने ऊपर लगे इस टैग को हटाने के लिए काफी मशक्कत की. आज नतीजा ये है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से लेकर पार्टी के कोर वोट बैंक तक में भी दलितों-पिछड़ों की भरपूर नुमाइंदगी है. अब जबकि बीजेपी अपने सियासी इतिहास के सबसे ऊंचे शिखर पर बैठी है, अपने दायरे को और बढ़ाने के लिए वो फिर से एक नई कवायद में जुटी है. ये कवायद है हिंदुत्व की विचारधारा पर चलते हुए अल्पसंख्यक तबकों खासकर मुस्लिमों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की.
इसी कवायद का हिस्सा है कि पार्टी में नए मुस्लिम चेहरों को तवज्जो दी जा रही है. ऐसा नहीं है कि बीजेपी पहली बार मुस्लिमों जोड़ने की कोशिश कर रही है. जनसंघ के दौर से मुस्लिम नेता इससे जुड़े रहे थे. 6 अप्रैल 1980 को बीजेपी की जब बुनियाद रखी तो फाउंडर मेंबर्स में मुस्लिम चेहरे भी शामिल थे. अब पार्टी मैसेज देना चाहती है कि उसकी नई मुस्लिम लीडरशिप पार्टी में मुसलमानों की प्रतीकात्मक भागीदारी से आगे दिखे. इसके लिए नई मुस्लिम राजनीति भी खड़ी करने की कोशिश की जा रही है. आइये समझते हैं कि भगवा पार्टी कही जाने वाली बीजेपी की मुस्लिम सियासतः-
बीजेपी की मुस्लिम सियासत ने कई करवट ली है, पार्टी ने कभी उन्हें चुनावी मैदान में उतारा तो कभी राज्यसभा और विधानपरिषद भेजकर दिल जीतने की कोशिश की. जनसंघ से लेकर मोदी युग तक कभी मुस्लिमों से दूरी बनाई गई तो कभी गले लगाया गया. इसीलिए बीजेपी की मुस्लिम सियासत में प्यार.. इनकार.. इकरार और जुदाई सब शामिल है.
शुरुआती दौर में जनसंघ ने भले ही मुसलमानों से दूरी बनाए रखी लेकिन आपातकाल में मुस्लिमों के साथ कंधे से कंधा मिलकर इंदिरा गांधी के खिलाफ आवाज बुलंद की और जेल गए. मुसमलानों को लेकर जनसंघ का नजरिया बदला तो मुस्लिमों का भी दिल पसीजा और जनता पार्टी में एक साथ खड़े नजर आए. यहीं से मुसलमानों के साथ आने का सिलसिला शुरू हुआ.
जनता पार्टी से जब बीजेपी का गठन किया गया तो अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के साथ सिकंदर बख्त और आरिफ बेग जैसे मुस्लिम नेताओं ने भी अहम भूमिका अदा की. बाजपेयी के पार्टी अध्यक्ष रहते हुए उत्तर प्रदेश से लेकर राजस्थान तक मुस्लिम नेता साथ आए, उस समय बीजेपी ने शिया मुस्लिम पर फोकस किया. हालांकि, बीजेपी की कमान आडवाणी के हाथों में आते ही हिंदुत्व की सियासत ने जोर पकड़ा तो मुस्लिम नेताओं की पार्टी में आने की रफ्तार धीमी पड़ गई.
90 का दशक आते-आते बीजेपी राममंदिर आंदोलन पर अपने कदम आगे बढ़ा चुकी थी. लालकृष्ण आडवाणी से लेकर उमा भारतीय, गोविंदाचार्य, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा जैसे हिंदुत्ववादी चेहरे पार्टी में हावी हो गए थे. 1992 में कारसेवकों ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था. ऐसे में कुछ समय के लिए बीजेपी की मुस्लिम सियासत कमजोर पड़ गई और उसे दोबारा से रफ्तार अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मिली. यही दौरान था जब बीजेपी में नए मुस्लिम चेहरे उभरे और सासंद, विधायक और मंत्री बने.
अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में बीजेपी का पूरा फोकस शिया और प्रगतिशील मुस्लिमों पर रहा, लेकिन मोदी युग में पार्टी ने मुस्लिम सियासत को लेकर अपना एजेंडा बदल दिया. 2014 के बाद पहले सूफी-बोहरा मुसलमानों को साधने की कवायद की गई तो 2019 के बाद पसमांदा मुस्लिम याद आए. पसमांदा मुस्लिम सियासत के जरिए बीजेपी मुसलमानों के दिल में कमल खिलाने की कवायद कर रही है.