नोएडा सेक्टर-106. भंगेल इलाके में अलग-थलग बना श्मशान घाट. दोपहर के करीब 12 बजे 30 साल के एक नौजवान का शव आया. लाश चबूतरे पर रखी गई. पास ही बने गोदाम से कुछ लोग अच्छी लकड़ियां चुनने चले गए. 55 साल का एक बदहवास बुजुर्ग हाथ में पत्तों का ढेर लिए अपने बेटे की लाश के चेहरे से मक्खियां उड़ाने लगा.
भीड़ के पास पहुंचकर हमने क्रिया-कर्म करवाने वाले मुकेश आचार्य के बारे में पूछा. अपना नाम सुनते ही मुकेश भीड़ से निकलकर सामने आए. हमारे आने का कारण पूछा और जवाब सुनने के बाद बरामदे पर रखी खाट की तरफ इशारा करते हुए इंतजार करने के लिए कहा.
मौत के मातम के बीच जिंदगी की जद्दोजहद भी
श्मशान परिसर में ही बने मुकेश के घर के बाहर इंतजार करते हुए कभी हम अंतिम क्रिया कराते मुकेश को देखते तो कभी उनके परिवार को, जो इस सब से बेपरवाह अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त था. जलती चिता से महज 50 फीट दूर मुकेश के तीन बच्चों राधिका (12), सानिया (7) और युग (2) को खेलते देखना हैरान करने वाला था. इन बच्चों को उस अंतिम संस्कार की प्रक्रिया से कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था. पहला सवाल राधिका से ही, बेटा स्कूल जाते हो? जवाब हां में मिला.
घर के अंदर मुकेश की पत्नी ज्योति खाना पका रही हैं. कुकर की सीटी की आवाज बाहर के शोर-शऱाबे को मंद कर रही है. आधा घंटा बीतने के बाद भी मुकेश अंतिम संस्कार की पूजा-पाठ में व्यस्त हैं. इस बीच ज्योति बच्चों की सुध लेने किचन से बाहर आती हैं. हमने उनसे पूछा, जलती लाशों के बीच परिवार को डर नहीं लगता?
चंद सेकेंड खामोश रहकर ज्योति कहती हैं,’यह सच है कि अंतिम संस्कार के अलावा ज्यादातर लोग यहां आने से घबराते हैं, लेकिन हमारा तो बचपन यहीं गुजरा है. छोटे भाई का जन्म, बहनों की शादी फिर मेरे बच्चों की पैदाइश से लेकर तमाम सुख-दुख हमने यहीं देखे हैं. मेरी शादी भी यहां से ही हुई. पापा-मम्मी ने आखिरी सांस भी यहीं ली. इसलिए खास लगाव हो गया है. यहां रहने से नहीं, बल्कि अब इस खयाल से डर लगता है कि इस जगह को छोड़कर कहीं और जाना पड़ा तो…’
रिश्तेदार घर नहीं आते, उनको हमपर शर्म आती है
‘क्या रिश्तेदार इस काम से खुश हैं?’ जवाब आता है,’ज्यादातर तो हमारे काम को पसंद नहीं करते. वो कहते हैं कि उन्हें किसी को यह बताने में शर्म आती है कि उनके रिश्तेदार यानी की हम श्मशान में रहते हैं. कई रिलेटिव इसीलिए हमारे घर नहीं आना चाहते.’
एक घटना का जिक्र करते हुए ज्योति बताती हैं,’एक बार एक रिश्तेदार अपनी बेटी के साथ घर आए थे. बेटी ने उनसे पूछा कि पापा घर के सामने आग क्यों जल रही है. उन्होंने कहा- हवन चल रहा है. वो बेटी को नहीं बताना चाहते थे कि कहां आए हैं. कुछ देर बाद वह जल्दबाजी में हमारे घर से चले गए.’
जब छोटे भाई ने खा ली मुर्दे की राख
श्मशान से जुड़ा कोई ऐसा वाकया, जो हमेशा याद आता हो? हम फिर सवाल करते हैं. जवाब आता है,’छोटे भाई से जुड़ी एक घटना है. एक दिन मम्मी घर का काम कर रही थीं. तब दो साल का भाई बरामदे में खेल रहा था. अचानक वह घुटने के बल चलते हुए जली हुई डेड बॉडी के पास चला गया और राख से खेलने लगा. पूरे शरीर में राख लगाने के बाद उसने थोड़ी सी राख खा भी ली. मम्मी ने उसे देखा तो दौड़ी-दौड़ी उसके पास पहुंचीं और फौरन उसके मुंह से राख निकाली.’
ज्योति बताती हैं, ‘हम डोम नहीं हैं, जाति से ब्राह्मण हैं. वह ब्राह्मण, जो अंतिम संस्कार में पूजा-पाठ कराते थे, लेकिन 2010 में यहां पर ही बस गए. अब अंतिम संस्कार में मदद करते हैं. यहां आने वाली डेड बॉडी के क्रिया कर्म के बाद हम एक पर्ची बनाकर देते हैं. इसके आधार पर ही सरकारी दफ्तर से डेथ सर्टिफिकेट बनता है’.
हमारी रक्षा तो मसान बाबा खुद करते हैं
डेढ़ घंटे बाद क्रिया-कर्म खत्म होते ही मुकेश सीधे हमारे पास आए. कुछ देर पहले जो सवाल उनकी पत्नी से किया था, वही उनके सामने था. ‘परिवार के साथ श्मशान घाट में रहते हैं, डर नहीं लगता?.’ सवाल सुनते ही मुकेश ठहाका मारकर हंसे, जैसे कोई चुटकुला सुन लिया हो.
मुकेश कहते हैं,’डर कैसा? मेरा पूरा परिवार घर के अंदर सोता है, मैं यहां बरामदे में अकेला खाट बिछाकर सोता हूं. हमारी रक्षा तो मसान बाबा (भगवान शिव) खुद करते हैं. ना मुझे और ना मेरे परिवार को, कभी डर नहीं लगा. जिन चबूतरों पर लाशें जलती हैं, मेरे बच्चे उनके आसपास रोज खेलते हैं. सबसे छोटा बालक, जो सिर्फ 2 साल का है. कभी-कभी तो खेलते-खेलते क्रिया-कर्म वाले स्थान तक पहुंच जाता है. डर उसके मन में भी नहीं है.’
‘श्मशान से घर आने के बाद लोग सबसे पहले नहाते हैं, क्या आप भी ऐसा ही करते हैं?’ इस सवाल के जवाब में मुकेश कहते हैं,’हम तो सुबह उठकर नहाने और पूजा-पाठ करने के बाद अपने काम की शुरुआत करते हैं. श्मशान भी उतना ही पवित्र होता है, जितना कोई मंदिर. जैसे मेरे यहां गाय पली हुई हैं. सड़क के उस पार रहने वाला एक आदमी रोज हमसे दूध लेने आता है, लेकिन वह गेट के अंदर नहीं घुसता. कहता है श्मशान के अंदर नहीं आऊंगा. मैं उससे कहता हूं, तुम अंदर नहीं आ रहे हो, लेकिन दूध तो अंदर से ही जा रहा है. कहने के मतलब यह है कि यहां आने और ना आने को लेकर सबके अपने-अपने नियम हैं.’
मुकेश आगे बताते हैं,’कई रिश्तेदारों को हमारे इस काम से दिक्कत है. कहते हैं तुम श्मशान में रहते हो तुमसे बात नहीं करेंगे. लेकिन अगर इसी तरह कोई भी यहां रहने को तैयार नहीं होगा तो इन लाशों का उद्धार कैसे होगा? मेरी तो शादी भी यहां से ही हुई है, तब से इधर ही रह रहा हूं.
इतने सालों से श्मशान में रह रहे हैं, क्या यहां कुछ अजीब लगता है? इस सवाल के जवाब में मुकेश कहते हैं,’श्मशान में तो नहीं, लेकिन समाज को देखकर जरूर अजीब लगता है. खत्म होती रिश्तों की अहमियत को देखता हूं तो अजीब लगता है. एक बार ऑडी कार से एक लड़का आया. उसके पिता की मौत हुई थी. अमीर घर का था, पिता को अग्नि देने के लिए दोस्त को साथ लाया था, कहने लगा-डर लगता है. मुझे आश्चर्य हुआ तो मैंने उससे पूछा- जिस कार में आए हो, उसे किसने खरीदा था. उसने कहा पापा ने. मैंने कहा फिर तो इस कार को भी अपने दोस्त से आग के हवाले करवा दो.
मुकेश और उनकी पत्नी से बात करने के बाद हम नोएडा के ही सेक्टर-135 में बने अंतिम निवास श्मशान घाट पर पहुंचे. यहां मोनू शर्मा मिले, जो पिछले ढाई साल से श्मशान परिसर में ही बने घर में अपनी मां, भैया, भाभी और उनके 3 बच्चों के साथ रहते हैं. मोनू ने बताया कि इस श्मशान में पहले बाउंड्री वॉल नहीं थी. कोई पक्का निर्माण नहीं था. अक्सर आसपास के लोग यहां किसी शव का अंतिम संस्कार करते तो अगले दिन उन्हें लाश आड़ी-तिरछी मिलती. आसपास मुर्गे के पंख, मांस, शराब और पूजा-पाठ का सामान मिलता. परेशान होकर ढाई साल पहले हमें यहां बसाया गया. अब हम अंतिम संस्कार कराने के साथ-साथ निगरानी भी करते हैं.
जब आधी रात को तांत्रिक के लिए बुलानी पड़ी पुलिस
मोनू ने आगे बताया,’करीब डेढ़ साल पहले एक बार रात साढ़े ग्यारह बजे गेट पर आवाज हुई. मैंने जाकर देखा तो तीन लोग खड़े थे, कहने लगे कि पूजा करनी है. पांच मिनट के लिए गेट खोल दो. मैंने मना किया तो बहस करने लगे. काफी देर समझाने के बाद भी जब नहीं माने तो मुझे पुलिस को फोन करना पड़ा. हालांकि, पुलिस के आने से पहले ही वो भाग गए.
दो श्मशान घाटों पर अलग-अलग परिवारों से बात करने के बाद हम सीधे दिल्ली के सरिता विहार में बने आली श्मशान घाट पर पहुंचे. दरवाजे से अंदर घुसते ही हमारी मुलाकात बृजकिशोर पंडित से हुई. 70 साल के बृजकिशोर यहां के मुख्य संचालक हैं. अंतिम संस्कार का काम करने पर क्या कोई परेशानी भी होती है? पूछने पर उन्होंने बताया कि कहने को वह ब्राह्मण हैं, लेकिन उनके साथ भी भेदभाव होता है. उनके नाती-नातिन अपने स्कूल में यह नहीं बता सकते कि उनका परिवार आखिर क्या काम करता है? अगर बता दिया तो डर है कि कहीं बच्चे या उनके टीचर उन्हें ताना ना मारने लगें.
बच्चे नहीं करना चाहते ये काम, शादी-ब्याह की भी है दिक्कत
बृजकिशोर ने बताया कि अंतिम संस्कार में पूजा पाठ करने वाले परिवारों को अपने बच्चों की शादी करने में भी बेहद परेशानी होती है. जब सामने वाले को पता चलता है कि यह परिवार क्या काम करता है तो वह रिश्ता करने के लिए तैयार ही नहीं होता. अनुसूचित जाति या जनजाति को आरक्षण मिला हुआ है, लेकिन इतनी मुसीबतें झेलने के बाद भी उनके लिए कोई आरक्षण नहीं है. उनके बच्चों की इस काम में बिल्कुल भी रुचि नहीं है. वो अपना कुछ अलग काम करना चाहते हैं. इसलिए बृजकिशोर को चिंता है कि उनके जिंदा न रहने के बाद इस श्मशान घाट का क्या होगा?
बच्चों की रुचि क्यों नहीं है? इस सवाल पर बृजकिशोर ने बताया कि यहां लाशें तो आती रहती हैं, लेकिन लोग पैसे देने में आनाकानी करते हैं. कार में सवार होकर आने वाले लोग तक पूजा-पाठ कराने के बाद 501 रुपये भी देने को तैयार नहीं होते. एक तो वैसे भी यह कोई सम्मानजनक काम नहीं है. ऊपर से पैसों की किल्लत के कारण बच्चों का मन इस काम में बिल्कुल नहीं है. ‘कुछ महीने पहले हमने विश्राम घाट की सुरक्षा के लिए एक चौकीदार रखा था, लेकिन पैसे न होने के कारण उसे नौकरी से निकालना पड़ा. हम क्या करें, हमारे पास फंड ही नहीं है.’
इतनी चिताएं जलाईं, अब अपनों की मौत हिलाती नहीं है
बृजकिशोर बताते हैं कि यह श्मशान घाट कॉलोनी के अंदर बना हुआ है. इसलिए इस कॉलोनी के लोग बाहर की डेड बॉडी का अंतिम संस्कार यहां नहीं करने देते. अब कॉलोनी में तो कभी-कभी कई-कई दिनों तक लोगों की मौत नहीं होती है. ऐसे में श्मशान घाट का संचालन करना बहुत टेड़ी खीर साबित हो रहा है. उन्हें किसी ने बताया था कि सरकार ने 13 लाख रुपये इस विश्राम घाट पर खर्च करने के लिए मंजूर किए हैं, लेकिन काफी समय होने के बाद अब तक उसकी कोई खबर नहीं है.
इतने अंतिम संस्कार देखने के बाद क्या दिल मजबूत हुआ है? इस सवाल के जवाब में बृजकिशोर कहते हैं कि इतनी मौतें देख ली हैं कि अब अपनों की मौत पर भी आश्चर्य नहीं होता है. कुछ समय पहले ही उनके भाई और उनकी भाभी की मौत हुई, लेकिन उन पर इसका कोई खास असर नहीं हुआ. बाद में वह खुद इस बारे में काफी समय तक सोचते रहे कि क्या सचमुच उनका दिल पत्थर का हो चुका है.
हालांकि, कुछ मौके ऐसे भी आए, जब उनका पत्थर का दिल भी पसीजने पर मजबूर हो गया. बृजकिशोर बताते हैं कि एक बार एक लड़के की मां एक्सापयर हो गईं. इस सदमे से दो दिन बाद उसके पिता की भी मौत हो गई. पिता के अंतिम संस्कार के एक हफ्ते बाद उसकी पत्नी को पेट में तेज दर्द हुआ और वह भी खत्म हो गई. अब उस परिवार में वह लड़का अकेला बचा है. उस मंजर को जब आंखों से देखा तो दिल चीख पड़ा कि इस लड़के से ईश्वर इतना नाराज क्यों हो गया कि कुछ दिन के अंदर उसका पूरा परिवार छीन लिया.